आजादी के समय जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था तब कई लोगों की जिंदगियां पूरी तरह से बदल गई थी। कई लोगों ने अपने अपनों को खोने का दर्द महसूस किया था तो, कई लोगों ने अपनी आंखों के सामने अपनों को खोते हुए देखा था। इस समय में एक ऐसे शख्स भी थे जिन्होंने ना इस दर्दनाक मंजर  को देखा बल्कि अपनों को खोने का दर्द झेलते हुए भारत का नाम पूरी दुनिया में इस कदर रोशन किया कि दुनियां आज तक इनकी मिसालें देती है। वो शख्स और कोई नहीं फ्लाइंग सिंह के नाम से मशहूर महान धावक मिल्खा सिंह है। मिल्खा सिंह का जन्म तो पाकिस्तान में हुआ था लेकिन आजादी के समय उन्होंने अपने 8 भाई बहनों को खो दिया था। बंटवारे की आग में माता पिता, एक भाई और दो बहनों को अपने सामने जलते देखा। जिसके बाद वो फिर हमेशा के लिए भारत आ गए। यहां आकर कभी न भूल पाने वाले दर्द के साथ उन्‍होंने ओलिंपिक तक का सफर तय किया और भारत का नाम रोशन किया। आज उनकी जिंदगी पर सुपर हिट फिल्ल भाग मिल्खा भाग भी बन चुकी है। जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा था। आइए जानते हैं मिल्खा सिंह की जिंदगी से जुड़े कुछ पहलू।

मिल्‍खा सिंह का नाम आज हर कोई जानता है। मिल्खा सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब में 20 नवम्बर 1929 को एक सिख राठौर परिवार में हुआ था। वह 15 भाई-बहनों में से एक थे। 1947 में भारत के विभाजन के बाद हुए दंगों में मिल्खा सिंह ने अपने माँ-बाप और भाई-बहन खो दिया। इस दर्दनाक मंजर के बाद वो शरणार्थी बन के ट्रेन द्वारा पाकिस्तान से दिल्ली आ गए। दिल्ली में वह अपनी शदी-शुदा बहन के घर पर कुछ दिन रहे। कुछ समय शरणार्थी शिविरों में रहने के बाद वह दिल्ली के शाहदरा इलाके में एक पुनर्स्थापित बस्ती में भी रहने लगे।  इस समय तक मिल्‍खा का संघर्ष जिदंगी के साथ चल रहा था एक वक्त ऐसा भी था जब मिल्खा सिंह डाकू बनने की सोच रहे थे। लेकिन उन्होंने आर्मी को चुना।

आर्मी की स्‍पेशल ट्रेनिंग के लिए चयन होने के बाद उनका धावक बनने का सफर शुरू हुआ। सेना में उन्होंने कड़ी मेहनत की और 200 मी और 400 मी की रेस में उन्होंने खुद को स्थापित किया। जिसके बाद उन्होंने  और कई प्रतियोगिताओं में सफलता हांसिल की। उन्होंने सन 1956 के मेर्लबोन्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद सन 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रिय खेलों में उन्होंने 200 मी और 400 मी प्रतियोगिता में राष्ट्रिय कीर्तिमान स्थापित किया और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किया। साल 1958 में उन्हें एक और महत्वपूर्ण सफलता मिली जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया। इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाडी बन गए।

रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ वर्ष पूर्व से ही मिल्खा अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था की इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर प्राप्त करेंगे। रोम खेलों से कुछ समय पूर्व मिल्खा ने फ्रांस में 45।8 सेकंड्स का कीर्तिमान भी बनाया था। 400 में दौड़ में मिल्खा सिंह ने पूर्व ओलिंपिक रिकॉर्ड तो जरूर तोड़ा पर चौथे स्थान के साथ पदक से वंचित रह गए।  उन्हें लगा की वो अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। लेकिन इस असफलता से सिंह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की।

मिल्खा ने 1960 के रोम ओलिंपिक में एक गलती के कारण वह चार सौ मीटर रेस में सेकेंड के सौवें हिस्से से पदक चूक गए। उस वक्त भी वह रो पड़े थे। मिल्खा ने कहा कि वह 1960 में पाकिस्तान में एक दौड़ में हिस्सा लेने जाना नहीं चाहते थे। लेकिन, प्रधानमंत्री नेहरू के समझाने पर वह इसके लिए राजी हो गए। मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिंह की उपाधी  पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने दी थी। दरअसल पाकिस्तान में 200 मीटर का इंटरनेशनल एथलेटिक्स कॉम्पटीशन हुआ था, जिसको लेकर पाकिस्तान में केवल 2 नामों की ही चर्चा थी। पाकिस्तानी एथलीट अब्दुल खालिक की और मिल्खा सिंह की। मिल्खा ने ये दौड़ जीती और खालिक तीसरे नंबर पर रहा। तब अयूब ने कहा था कि ये सिख तो दौड़ना नहीं उड़ता है, ये तो ‘फ्लाइंग सिख’ है

मिल्खा सिंह (Milkha Singh) ने 1968 तक कोई मूवी ही नहीं देखी थी, जबकि वो कई बार ओलम्पिक, एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ गेम्स में हिस्सा लेने कई विदेश यात्राएं कर चुके थे। लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ देखकर उनकी आंखे भर आई थी।  मिल्खा सिंह ने अपनी ऑटोबायोग्राफी अपनी बेटी सोनिया के साथ मिलकर लिखी थी, 2013 में आई इस ऑटोबायोग्राफी का नाम था- ‘द रेस ऑफ माई लाइफ’। जब डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने उनपर मूवी बनाने का ऐलान किया तो उन्होंने उस ऑटोबायोग्राफी को केवल 1 रुपये में बेच दिया।  मिल्खा सिंह भारतीय महिला बॉलीवॉल टीम की 1962 में कैप्टन रही निर्मल कौर से शादी की थी। मिल्खा सिंह ने अपनी काबिलियत और मेहनत के दम पर अपनी सफलता की कहानी (Success Story) लिखी है। उनकी यह कहानी सही मायने में सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत (Inspirational) है। हर कोई उनके जीवन से प्रेरित (Motivate) हो सकता है।