नेटवर्क मार्केट में एक डिजास्टर है 'डाउट' यानी संदेह! किसी भी व्यवसाय में बहुत सारे लोगों के जुड़े होने से भी संदेह की संभावना कम नहीं होती. इन्वेस्ट से पूर्व संदेह करना स्वाभाविक हो सकता है, मगर इन्वेस्ट के बाद भी संदेह करना सही नहीं है. हम सोचते हैं कि हम तो फंस गये हैं, किसी और को क्यों फंसाया जाये? स्थिति तब और हास्यास्पद हो जाती है जब सारे डाउट क्लियर होने के बाद भी एक निगेटिव बात हमारे मन की पॉजिटिविटी को खत्म कर देती है. यहां हम नेटवर्क मार्केट से जुड़े एक आध्यात्मिक प्रसंग की बात करेंगे, जो दर्शाता है कि संदेह का परिणाम कितना बुरा हो सकता है. हम नेटवर्क मार्केट में कहां-कहां डाउट करते हैं, उससे क्या-क्या नुकसान हैं. आइये इस प्रसंग के माध्यम से समझते हैं. Home Chocolate Business: घर से चॉकलेट बनाकर करें लघु उद्योग की शुरुआत, जानें बिज़नेस को शुरू करने के मंत्र

अजीब से रिश्ते थे भगवान शिव और भगवान श्रीराम के बीच

शिवजी सती के साथ कुंबज ऋषि के आश्रम से राम-कथा सुनकर लौट रहे थे. कुंबज ऋषि का आश्रम दक्षिण में है, शिवजी उत्तराखंड में कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, यह दर्शाता है कि आपको कुछ सीखना है तो ऊपर से नीचे आना होगा. वस्तुतः शिवजी और श्रीराम के बीच अजीब-सा रिश्ता है, दोनों एक दूसरे को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. रामकथा सुनकर लौटते समय शिवजी श्रीराम का दर्शन करने की चाहत रखते हैं. तभी सीताजी की तलाश में श्रीराम-लक्ष्मण आश्रम के करीब से गुजरते हैं, श्रीराम से सामना होते ही शिवजी सच्चिदानंद कहते हुए पृथ्वी को स्पर्श करते हैं. सती को शिवजी का सामान्य व्यक्ति के सामने झुकना अच्छा नहीं लगता. वे सोचती हैं, जो न सच है, ना चित्त है, ना आनंद है. सती के मन में पहली बार शिवजी के प्रति संदेह होता है. शिवजी कहते हैं- हे सती तुम नारी होने के कारण जो संदेह कर रही हो, वह सत्य नहीं है. ये राम साधारण मनुष्य नहीं भगवान हैं. लेकिन सती मन के संदेह को मिटा नहीं पातीं. जैसे लाख विश्वास जमने के बावजूद हम कहते हैं, बस एक बार कंपनी का बैलेंस शीट दिखा दो.. किसी की कमाई का एक चेक दिखा दो... अच्छा बैंक स्टेटमेंट ही दिखा दो. यानी संदेह बरकरार है. सती के संशय को मिटाने के लिए शिवजी कहते हैं जिसकी कथा सुनने मैं कैलाश से कुंबज ऋषि के आश्रम आया, जो वरदान में उस प्रभु की भक्ति मांग रहा है, जिसकी कथा मुझे सुना रहा है. सती को नहीं समझ में आने के कई कारण हैं, प्रथम वे विद्वान पिता की पुत्री हैं, दूसरा, बिना परीक्षा के मानने को तैयार नहीं हैं. तीसरी वजह, दूसरों को समझाना आसान है, लेकिन घर के निकटतम व्यक्ति को समझाना मुश्किल है. शिवजी समझ गये कि सती को प्रमाण के बिना समझाना मुश्किल है. यानी डाउट करने वाला व्यवसायी ऑफिस जायेगा और देखेगा कि वो है भी कि नहीं. शिवजी सती से कहते हैं- अब तुम स्वयं परीक्षा ले लो. सती मान जाती हैं. वह परीक्षा के लिए अकेले चली जाती हैं. शिवजी एक बटवृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं.

संदेह सती को असत्य के लिए विवश करता है

यहां सीख यही है कि जीवन में आई समस्याओं के निवारण के लिए प्रमाणिक तौर से प्रयास कर ही लेना चाहिए. यहां समझने वाली बात यह है कि अपनी इच्छा पूरी नहीं हुई तो समझ लें कि उसकी इच्छा होगी और इच्छा पूरी हो जाये तो हरि कृपा मान लें. इसके बाद क्रेडिट नहीं लेना चाहिए, कि काम हो जाये तो अपनी पीठ थपथपा लें और बिगड़ जाये तो दुनिया को गाली दें.

परीक्षा के लिए जाते हुए सती सोचती हैं कि उस व्यक्ति की परीक्षा कैसे लें, जिसके सामने शिव जी मत्था नवाते हैं. अंततः सती ने सीता का रूप लेने की योजना बनाई, अगर ये आम इंसान हुए, तो मेरे पीछे आयेंगे, लेकिन अगर वे वाकई ईश्वर हैं, तो वे मुझे पहचान लेंगे. यहां सती ने गलती ये कर दी कि वे सीता बनकर श्रीराम के सामने आ गईं. जबकि असली सीता श्रीराम के पीछे ही रहतीं. इसी तरह असली डाउन लाइन आगे भी जाना चाहती है और उसे पीछे भी छोड़ना चाहती है. सती को सामने देखते ही श्रीराम ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा- हे देवी आप वन में अकेले क्यों भटक रही हैं? मेरे पिता शिवजी कहां हैं? भेद खुलने पर सती बिना प्रतिक्रिया जताए चली जाती हैं. श्रीराम दिव्य लीला रचते हैं, जिस तरफ सती जा रही थीं, उसके आगे, पीछे, दायें, बाएं हर ओर उन्हें श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता नजर आते हैं. सती घबराकर आंख बंदकर वहीं बैठ जाती हैं. प्रभु अपनी लीला रोक देते हैं. सती आंखें खोलती हैं. राम चरितमानस में यह लिखा हुआ है.

'कछु न दिखी दक्ष कुमारी को.

सती वटवृक्ष के नीचे लौटीं, शिवजी ने पूछा सत्य बताओ परीक्षा कैसी रही? शिवजी को संदेह था कि सती असत्य बोल सकती हैं, और सती का असत्य तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा

कछु न परीक्षा लीन्हीं गुसाईं, कीन्ह प्रणाम तुम्हारिहिं नाईं।

अर्थात, मैंने कोई परीक्षा नहीं ली, जैसे आपने प्रणाम किया वैसे ही मैं भी प्रणाम कर लौट आई. एक भूल को छिपाने के लिए कभी-कभी बहुत सारी भूलें करनी पड़ती हैं. मां सती की पहली भूल थी कि वह कुंबज के यहां गई, मगर ऋषि की राम-कथा को ग्रहण नहीं किया. दूसरी गलती यह थी कि पति शिवजी ने उन्हें समझाया कि यही राम हैं, लेकिन उस पर संदेह किया. तीसरी गलती, पति की बात नहीं मानीं. चौथी गलती, वे परीक्षा लेने चली गईं. पांचवी गलती बिना पति को साथ लिये चली गईं. छठी गलती, परीक्षा में पकड़ी गईं तो भी श्रीराम को नमन नहीं किया, सातवीं गलती, अपने पति से ही झूठ बोल दिया.

प्रभु शंकर देख्यो धरि ध्याना, सती जो कीन्हीं चरित सब जाना

शिवजी ने सती को त्यागने का निर्णय क्यों लिया?

भगवान शिव ने ध्यान करके सत्य जान लिया था. उन्हें बहुत बुरा लगा कि सती ने मेरी माँ का रूप धरा! यानी डाउट आपको कहां से कहां तक लेकर जा सकता है. शिवजी ने उसी समय निर्णय ले लिया कि इस जनम में सती के साथ गृहस्थ जीवन नहीं निभाया जा सकता है. अब इस डाउन लाइन को छोड़ देना ही समझदारी होगी. शिवजी कैलाश पहुंचकर अंदर जाने के बजाय बाहर ही बैठ गये. सती समझ गईं कि शिवजी ने उन्हें त्याग दिया है. इतिहासकार कहते हैं कि शिवजी के जीवन में त्याग उच्चारण से नहीं आचरण से दिखता है. शिवजी के जीवन में प्रदर्शन नहीं दर्शन होता है, जबकि हम प्रदर्शन ज्यादा करते हैं दर्शन पर कम विश्वास करते हैं. शिवजी राम का नाम लेते हुए अखण्ड समाधि में चले जाते है.

बीते संवत सहत सत्तासी

सत्तासी हजार साल की समाधि के दरम्यान माता सती कैलाश पर्वत पर अकेले थीं. शिवजी की समाधि टूटी तो पहला नाम श्रीराम का ही निकला.

राम नाम सुनकर सती बाहर आईं

जाय शंभू पद बंधन कीन्हा, सम्मुख शंकर आसन दीन्हा

शिवजी ने सती को बुलाकर बायें की जगह सामने बिठाया (बाएं केवल पत्नी बैठती है)

शराबी संगठित हो सकते हैं विद्वान नहीं

शिवजी सती से राम की चर्चा कर ही रहे थे, तभी ऊपर से विमान गुजरा. सती ने पूछा ये विमान कहां से आया. शिवजी ने बताया कि इस विमान से सभी देवगण तुम्हारे पिताजी द्वारा आयोजित यज्ञ में जा रहे हैं. वहां ब्रह्मा, विष्णु एवं मुझे (शिवजी) नहीं बुलाया गया है. विडंबना यह कि बुरे लोग ही नहीं अच्छे लोग भी समस्या हैं. आज भी ऐसा होता है कि अगर किसी जगह आप शादी में जा रहे हैं, आपको इतना पता चल जाये कि दूसरे को नहीं बुलाया गया है. आप उसी के घर के सामने से ही गुजरेंगे, पूछेंगे, चलो भाई! आप कहेंगे नहीं नहीं, सामने वाला टोकेगा क्यों नहीं चलिए ना! आप कहेंगे मुझे नहीं बुलाया है. नहीं बुलाया और वह भी आपको! सामने वाले को सब पता है, लेकिन वह आपको कोचेंगे. अरे बहुत बुरा किया.. आप तो बहुत करीबी थे! आपको ही नहीं बुलाया!.. आप कहेंगे कि आप जाइये! वह कहेगा, हमारा भी मन कहां कर रहा है, हम तो आपके कारण जा रहे थे, ठीक है जा तो रहे हैं, मगर मन आपके पास छोड़े जा रहे हैं. बाहर निकल कर वही दूसरे से कहेगा, देखा बहुत चौधरी बनकर घूम रहे थे, इन्हें ही नहीं बुलाया अच्छा हुआ! अच्छे लोगों की बुराई यही है कि वे संगठित नहीं हैं. आप चार शराबी को एक साथ देख सकते हैं, लेकिन चार विद्वान एक साथ नहीं हो सकते. अच्छे लोगों की सबसे बड़ी बुराई यही है कि वे संगठित नहीं हो सकते. दरअसल शराबियों को चारों तरफ से गालियां और अपमान मिलता है. वे सोचते हैं कि हम अपनी गालियां आपस में शेयर कर लेंगे. लेकिन विद्वान कभी नहीं चाहेगा कि उसकी तालियां कोई और बटोरे. सारा सम्मान वह अकेले भोगना चाहता है.

संदेह बना मृत्यु का कारण?

सती ने शिवजी से पूछा आपको क्यों नहीं बुलाया! शिवजी बताते हैं, राजा दक्ष जब प्रजापति हुए तो ब्रह्माजी ने उनके स्वागत में भोज दिया. सभी देवताओं के साथ मैं भी गया. सभी बैठे थे, मैं भी ध्यान लगाकर बैठा था. जब तु्म्हारे पिता आये तो सभी खड़े हो गये, मैं नहीं खड़ा हो सका क्योंकि मैं ध्यान में था, यही बात उन्हें बुरी लग गई. मैंने बुरा नहीं किया मगर वे बुरा मान गये. यहां सीखने वाली बात यह है कि मां सती ने पूछा मैं चली जाऊं? शिवजी ने कहा मैं भी यही सोच रहा था कि तुम चली जाओ, मगर हमें निमंत्रण नहीं आया. सती ने कहा, मेरे लिए क्या निमंत्रण? वह तो मेरे पिता जी का घर है. मां सती नहीं मानीं, शिवजी बोले ठीक है, भगवान ने कुछ दूतों के साथ उन्हें भेज दिया. शक का क्या हश्र हो सकता है, कहानी के अंत में आप समझेंगे. मां पति के बिना पहुंच गईं, भगवान एक बार फिर ध्यान में बैठ गये. सती पिता घर पहुंचीं, वहां सभी देवताओं की जगह तय थी. मगर पति शिव के लिए कोई स्थान नहीं था. अपमान एवं तिरस्कार नहीं झेल पाने के बाद सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर जान दे दिया. ध्यानावस्था में शिव को सारी घटना का पता चल गया.  उन्होंने गुस्से में अपनी जटाओं को जमीन पर पटका, जिससे वीरभद्र का उद्भव हुआ. वीरभद्र को आदेश दिया गया कि सभी को मार दिया जाये. वीरभद्र ने वहां पहुंचकर यज्ञ विध्वंश कर दिया और राजा दक्ष का गर्दन काटकर यज्ञ कुण्ड में फेंक दिया. कहानी का सार यह कि एक डाउट किसी के जीवन का भी अंत कर सकता है.