सैम मानेकशॉ हमारे देश में शौर्य, जांबाजी और दृढ़ निश्चय का जीता-जागता उदाहरण थे। ये वही इंसान थे, जिनके नेतृत्व में 1971 में भारत की सेना ने मात्र 13 दिनों में पाकिस्तान को अपने घुटनों पर ला दिया था। सैम मानेकशॉ ने द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर 1971 के भारत-पाक युद्ध तक कई युद्ध लड़े और हर युद्ध में जबरदस्त बहादुरी का परिचय दिया था।

सैम मानेकशॉ एक पारसी परिवार में जन्मे थे, जिनके पिता खुद एक डॉक्टर थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पहले डॉक्टर बनना चाहते थे, लेकिन पिता के मना करने पर उन्होंने फिर सेना जॉइन की।

सैम मानेकशॉ का जीवन और उनसे जुड़े कुछ अनोखे किस्से -

जन्म: 3 April 1914, अमृतसर, पंजाब
पिता: हॉरमुसजी मानेकशॉ
माता: हिला नी मेहता
सेना में पद: फील्ड मार्शल
सम्मान: पद्म भूषण, पद्म विभूषण
मृत्यु: 27 June 2008

ऐसा था सैम बहादुर का शुरुआती जीवन

सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में हुआ था। सैम के माता-पिता उनके जन्म से पहले से मुंबई में रहते थे। सैम के पिता का नाम हॉरमुसजी मानेकशॉ था, जो कि एक डॉक्टर थे।

हॉरमुसजी के एक दोस्त लाहौर में रहते थे, उनके कहने पर 1903 में हॉरमुसजी मुंबई से लाहौर के लिए निकल गए थे। उस समय उनकी पत्नी हिला नी मेहता गर्भवती थी। जब ट्रैन अमृतसर पहुंची, तब उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गयी तथा डॉक्टर ने उन्हें यात्रा करने के लिए मना कर दिया। उसके बाद हॉरमुसजी और उनकी पत्नी ने अमृतसर में ही रुकने का फैसला कर लिया। वहीं पर हॉरमुसजी ने अपना क्लिनिक और फार्मेसी शुरू की। अगले 10 सालों में दंपत्ति के 6 बच्चे हुए, जिनमें से सैम पांचवें नंबर के थे।

फील्ड मार्शल सैम बहादुर का पूरा नाम सैम हॉरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था।

सैम की प्रारंभिक शिक्षा पंजाब में हुई और फिर अपन ग्रेजुएशन करने के लिए वे नैनीताल चले गए। शुरुआत में सैम गायनेकोलॉजिस्ट बनना चाहते थे, लेकिन उनके पिता के मना करने पर वे सेना में भर्ती हो गए। अपनी जांबाजी के दम पर धीरे धीरे वे फील्ड मार्शल के पद पर पहुंचे।

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जानिए सैम मानेकशॉ के जीवन के कुछ अनोखे किस्से

फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के जीवन के कुछ किस्से बड़े मजेदार हैं और कुछ हिस्से बहुत ही प्रेरणादायी हैं। जानिये कुछ ऐसे ही किस्सों के बारे में –

7 गोलियां लगने के बाद भी हँसते रहे

सैम मानेकशॉ 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारत में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के कैप्टन बने। 1942 में जब वे बर्मा में जापान के खिलाफ लड़ रहे थे, तब उन्हें दुश्मनों की कई गोलियों ने छलनी कर दिया। कई गोलियां लगने के बाद भी वे लगातार लड़ते रहे। जब वे लड़ते-लड़ते थककर गिर गए, तब अंग्रेज मेजर जनरल डेविड कोवान ने अपनी वर्दी से मिलिट्री क्रॉस निकालकर उन्हें दे दिया। मिलिट्री क्रॉस कभी भी मरणोपरांत नहीं दिया जाता था। अंग्रेज अधिकारी ने कहा कि तुम कुछ समय में मरने वाले हो, इसलिए मैं अपना क्रॉस तुम्हें दे रहा हूँ।

एक भारतीय सिपाही शेर सिंह सैम मानेकशॉ को अपने कंधे पर लेकर एक ऑस्ट्रेलियन डॉक्टर के पास पहुंचा। ऑस्ट्रेलियन डॉक्टर ने सैम का इलाज करने के लिए मना कर दिया, क्योंकि उसे लग रहा था कि सैम के बचने के कोई चांसेस नहीं है। लेकिन डॉक्टर पर दबाव डालने पर उसने सैम की जांच की, तो उसे पता लगा कि सैम के लंग्स, किडनी और लीवर में कुल 7 गोलियां लगी थी। जब डॉक्टर ने उनसे पूछा कि तुम्हें क्या हुआ है, तब सैम ने जवाब दिया कि एक खच्चर ने मुझे लात मार दी है। सैम का इलाज शुरू हुआ और वे मौत को हराकर जिन्दा वापस आ गए और फिर से देश की सेवा में लग गए।

सैम मानेकशॉ ऐसे बने सैम बहादुर

1969 में सैम सेनाध्यक्ष बने, जुलाई 1969 में सैम 8 गोरखा राइफल्स की एक बटालियन के दौरे पर गए थे। वहां पर उन्होंने एक गोरखा जवान से पूछा कि क्या तुम मुझे जानते हो, वो जवान इतने बड़े अधिकारी को देखकर थोड़ा सा घबरा गया। ऐसे में उसने सैम मानेकशॉ को सैम बहादुर कहा। सैम ने उस जवान को गले लगाया और उसके बाद से वे हमेशा सैम बहादुर के नाम से जाने गए।

जब इंदिरा गांधी का आदेश नकार दिया था

पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) पाकिस्तान से अपनी आजादी के लिए जंग लड़ रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना लगातार अत्याचार कर रही थी, जिसके चलते पूर्वी पाकिस्तान के कई लोग शरणार्थी बनकर भारत में आ रहे थे। उस समय इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थी और वो इस स्थिति को लेकर काफी चिंतित थी। 27 अप्रैल 1971 को इंदिरा गांधी ने एक आपात बैठक बुलाई, सैम भी सेनाध्यक्ष होने के नाते इस बैठक में शामिल हुए। 

इंदिरा जी ने सैम को आदेश दिया कि पूर्वी  पाकिस्तान में भारतीय सेना दखल दे, तब सैम ने इंदिरा जी का आदेश मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने इंदिरा जी से युद्ध की तैयारी के लिए कुछ समय माँगा, इंदिरा जी ने उन्हें तैयारी के लिए समय दे दिया। बाद में जब युद्ध हुआ, तो उसका परिणाम जगजाहिर है।

हजार रुपये के बदले पाकिस्तान के 2 टुकड़े कर दिए

सैम मानेकशॉ और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान आजादी के पहले दोस्त हुआ करते थे। सैम मानेकशॉ के पास एक अच्छी मोटरसाइकिल हुआ करती थी। जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तब याह्या खान ने सैम से उनकी मोटरसाइकिल मांग ली और कहा कि वे हजार रुपये बाद में उन्हें भेज देंगे, लेकिन याह्या खान ने वो हजार रुपये कभी लौटाए ही नहीं। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के सरेंडर करने पर मानेकशॉ ने याह्या खान से कहा कि याह्या, तुमने मेरी मोटरसाइकिल के हजार रुपये कभी नहीं लौटाए, लेकिन आज देखो, मैंने उन हजार रुपये के बदले तुम्हारा आधा देश तुमसे छीन लिया और एक अलग देश ही बना दिया। वही देश आज बांग्लादेश कहलाता है।

पाकिस्तान के बंदी सैनिकों का रखा ध्यान

जब 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने भारत के सामने सरेंडर कर दिए, तब जितने भी पाकिस्तानी सैनिक युद्धबंदी बनाए गए थे, सैम मानेकशॉ ने आदेश दिया था कि सभी पाकिस्तानी सैनिकों का सही तरीके से ख्याल रखा जाए। 

उस समय युद्धबंदियों के लिए पक्के मकान दिए गए, जबकि भारतीय सैनिक बाहर खुले में सोते थे। जो भी खाना बनता था, वो पहले पाकिस्तानी सैनिकों को दिया जाता था, उसके बाद बचा हुआ खाना भारतीय सैनिकों को दिया जाता था। उन्हें पढ़ने के लिए कुरान भी दी गयी थी, इस तरह से सैम मानेकशॉ ने दुश्मन सैनिकों के साथ भी मानवीय व्यवहार किया था।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कहते थे "स्वीटी"

प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी के सामने लोग कुछ भी कहने से डरते थे, वहीं सैम मानेकशॉ उनके सामने बिना डरे अपनी बात रखते थे। 1971 के युद्ध में जब इंदिरा गांधी ने सैम से पूछा कि क्या हम युद्ध के लिए तैयार हैं, तब उन्होंने इंदिरा गांधी जी से कहा कि मैं हमेशा तैयार हूँ स्वीटी। इंदिरा जी जानती थी कि 1971 का यह युद्ध सैम मानेकशॉ के नेतृत्व के बिना नहीं जीता जा सकता, इसलिए वो उनके सारे नखरे सहती थी।

सैम मानेकशॉ के तख्तापलट करने की उड़ी अफवाह

सैम मानेकशॉ के लहजे और बेबाकी से जवाब देने के कारण एक बार अफवाह उड़ी कि सैम मानेकशॉ पाकिस्तान की तरह भारत में तख्तापलट कर सकते हैं। इंदिरा जी ने सैम को तुरंत बुलाया और उनसे तख्तापलट को लेकर सवाल पूछा। तब सैम ने अपनी कड़क आवाज में कहा - स्वीटी, मेरी और तुम्हारी दोनों की नाक बहुत लम्बी है, तुम मेरे काम में अपनी नाक मत डालो, मैं आपके काम में अपनी नाक नहीं डालूंगा।

सैम मानेकशॉ को बाद में वो सम्मान कभी नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए था। सैम मानेकशॉ के जीवन के किस्सों को एक आर्टिकल में समेटना संभव नहीं है।