आज के समय में पैसे खर्च कर किसी व्यापार को प्रारंभ करना बहुत आसान काम है, लेकिन हमारी सबसे बड़ी मुश्किल है कि आपकी सोच को लोगों तक पहुंचना और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का तरीका क्या है. आज मार्केटिंग और प्रमोशन ही वह चीजें है, जिसके द्वारा आप अपना प्रोडक्ट और सेवाएं लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते है और लोगों को इसके संबंध में जानकारी दे सकते है, इस तरह आप आसानी से ग्राहक बना लेते हैं. आज हम बात करेंगे सेल्स और मार्केटिंग के कुछ अचूक फॉर्मूलों पर..
बाजार में जगह बनाने के लिए सबसे पहले कंज्यूमर बिहेवियर का अध्ययन करना चाहिए, प्रॉफिट, प्रोडक्ट, प्राइज, प्रॉफिट और पोजिशनिंग आदि की बात बाद की है. सर्वप्रथम ये देखिये कि आपका कंज्यूमर क्या चाहता है. इस संदर्भ में अमिताभ बच्चन का पोलियो कैंपेन बड़ा उदाहरण है. अमिताभ बच्चन पांच साल तक WHO के लिए पोलियो कैंपने में लगे रहे, 'आइये जीवन के दो बूंद पिलाइये', लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद बूथ तक कोई नहीं आता था. WHO ने अमिताभ बच्चन को रिप्लेस करने के बजाय यह जानने की कोशिश करते रहे कि चूक कहां हो रही है. उन्होंने छोटे-छोटे कस्बों, ताल्लुका, गांवों में जाकर समझने की कोशिश की कि कंज्यूमर बूथ तक क्यों नहीं आते.
दरअसल अलग-अलग कंज्यूमर में डिसीजन मेकिंग के अंदर बाइंग रोल्स होते हैं. मतलब खरीदने के अलग-अलग रोल्स होते हैं. एक ही आदमी खरीदार नहीं होता. बाइंग रोल्स में 5 फैक्टर्स होते हैं-
1- इनीसियेटर (Initiator) जो शुरुआत करता है कि हां अमुक सामान लेना चाहिये. जिसके बारे में वह सुनता है.
2- इन्फ्ल्युएंसर (Influencer) इन्फ्ल्युएंसर इस बात को पुख्ता करता है कि हां सामान वास्तव में अच्छा है, इसे अवश्य लेना चाहिए.
3- डिसाइडर (Decider) मतलब माल फाइनल हो गया, तय हो गया. निर्णय ले लिया कि हां इसे लेना ही चाहिए. इस प्रोडक्ट में वह सारी बातें हैं, जो हमें चाहिए.
4- बायर (Buyer) जो दुकान पर जाकर आपका प्रोडक्ट खरीदता है.
5- कंज्यूमर (Consumer) जो उसका इस्तेमाल करता है.
अंततः अमिताभ बच्चन की इमेज ही काम आयी.
दरअसल अमिताभ बच्चन के पल्स पोलियो कैंपेन का मूल कंज्यूमर दो साल के बच्चे हैं, लेकिन प्रोडक्ट खरीदने में उनका कोई रोल नहीं था. वह यह निर्णय नहीं ले सकते थे कि उन्गें पल्स पोलियो लेना है या नहीं. उस बच्चे की 22 साल की मां थी, जिसके सास और ससुर 50 और 55 साल के थे, उनका कहना था कि मेरे बच्चे को पोलियो नहीं हुआ है, मैं उसे पोलियो क्यों पिलाऊं? जब उसे पोलियो होगा तो पिला देंगे. यानी मूल इन्फ्युएंसर और डिसाइडर वही थे. यहां अमिताभ बच्चन की टीम ने इन्फ्युएंसर और डिसाइडर के ऊपर कोई काम नहीं किया. क्योंकि अमिताभ बच्चन हाथ जोड़कर प्रार्थना करते थे.वास्तव में 50-55 साल के सास और ससुर ने अमिताभ बच्चन को 80-90 के दशक में एंग्री यंगमैन के रूप में देखा था. उनके दिमाग में वही अमिताभ बच्चन छाये हुए थे. हाथ जोड़कर पोलियो पिलाने वाले अमिताभ बच्चन के साथ वे रजिस्टर्ड ही नहीं होते थे. WHO ने कंज्यूमर बिहैवियर के साइकोग्राफिक और डेमोग्राफिक को समझा और जाकर ऐड कैंपेन चेंज करवाया. उन्होंने अमिताभ बच्चन के एंग्रीयंग मैन से कैंपेन करवाना शुरु किया. सास ससुर को अमिताभ बच्चन का वह रूप तुरंत स्ट्राइक कर गया. क्योंकि वही इन्फ्युएंसर और डिसाइडर थे. उसके बाद हर पोलियो बूथ बच्चों और मांओं से भर गये. किसी ने उनसे पूछा कि अब कैसे आ गये, उन्होंने कहा बच्चन साहब गुस्से में थे, इसीलिए आ गये. अब प्रोडक्ट वही था, सब कुछ वही था, फ्री में भी था, फिर भी माल खप नहीं रहा था. फिर इतना बड़ा चेंज कैसे आ गया?
वास्तव में यहां कंज्यूमर कंज्यूमर की अहम भूमिका रही. यही हाल कैडबरीज, की थी, जब उन्होंने बच्चों के विज्ञापन को हटाकर यूथ को यूज किया और देखते ही देखते कैडबरीज की बिक्री 20 प्रतिशत से 80 प्रतिशत तक पहुंच गयी. उन्होंने कंज्यूमर को समझा. इसके बाद ही उन्होंने 'शुभारंभ' कैंपेन शुरु किया, फिर 'फैमिली कैंपेन' लान्च किया. 'कुछ मीठा हो जाये', यानी बच्चों से यूथ, फिर परिवार तक अपनी पैठ बना लिया. साल 2000 में वे चॉकलेट से मिठाइयों पर आ गये. यहां भी उन्होंने कंज्यूमर के कंज्यूमर को पकड़ा. आज हर त्योहार पर मिठाइयों की जगह चॉकलेट ने ले लिया है. जी लेट की भी यही कहानी थी. उन्होंने भी कंज्यूमर कंज्यूमर को पकड़ा. भारतीयों की दाढ़ी बनाने के तौर-तरीके को पकड़ा, कीमत को देखा, और मार्केट में छा गये.
जरूरी है कन्ज्यूमर के मूड और कंज्यूमर की स्टडी
ध्यान रखिये आपका क्लेम मार्केट में है, आपको उसे किसी भी कीमत पर पकड़ना होगा. आप हर किसी को माल मत बेचिये, परफेक्ट कस्टमर पकड़िये वही असली खरीदार है. इसके लिए अपना साइकोग्राफिक और डेमोग्राफिक या सायकोग्राफिक एथनोग्राफिक जैसी मिलती-जुलती चीजें मिलेंगी. उदाहरणस्वरूप कन्ज्यूमर का एज, इंन्कम, जेंडर, मेल, फिमेल, शादी शुदा है या कुंवारा है, एजुकेशन, लोकेशन, किस धर्म का है, क्या काम करता है किस कंपनी में काम करता है, उसकी वैल्यू क्या है, उसका सोशल क्लास क्या है, उसकी पर्सानिलिटी कैसी है, बायर है या बार्गनर है, अर्बन है कि रूलर है, लाइफ स्टाइल, कल्चर क्या है. इस तरह पहले आप परफेक्ट कस्टमर का प्रोफाइल बनाइये, उसके बिहैवियर को स्टडी करिये. मारुति सुजुकी, जिसने 15 साल पहले आल्टो गाड़ी लांच की थी. आज तक उसे चलाए रखने के लिए वह रिवर्स इनोवेशन पर काम कर रहा है. जितनी कीमत की गाड़ी उसने 15 साल पहले लांच की थी, आज भी उसी कीमत में बेच रहा है. 15 सालों में इतना इन्फ्ल्युएंस आने के बावजूद उनकी कार की कीमत में कोई बदलाव नहीं आया. दरअसल उन्होंने अपनी कास्ट कम कर रखने के लिए कंज्यूमर के एक्जेक्ट कंज्यूमर को पढ़कर पोजिशनिंग की. उन्होंने ऐसी गाड़ी बनाकर दी, जिसे कोई बीट ही नहीं कर पाया. मारुति जब भी कुछ नया लांच करते हैं तो वह उस प्रोडक्ट और कंज्यूमर के कंज्यूमर पर बहुत स्टडी करते हैं. उन्होंने रिनोल्ट डस्टर लाने से पहले यहां की अच्छी तरह से प्रोफाइलिंग की फिर उसे उसी के अनुसार गाड़ी तैयार किया. कहने का आशय यह कि पहले ये मत देखिये कि टेक्नोलोजी क्या है, मेन पॉवर क्या है, ये देखिये कि मार्केट में कंज्यूमर कैसा व्यवहार कर रहा है, उसी के हिसाब से अपने अंदर चेंज लाने की कोशिश करिये. आपका प्रोडक्ट हाथों-हाथ बिकेगा.