Asset Light Model: हर व्यवसायी की ख्वाहिश होती है कि वह अपने छोटे-से व्यवसाय को कैसे बढ़ाए. लेकिन पूंजी के अभाव में उसके दिल की इच्छा दिल में ही रह जाती है. लेकिन आज बदले हुए हालात में असंभव-सी लगने वाली हर बात अब संभव हो सकती है. फिर वह चाहे कम से कम पूंजी निवेश कर छोटे व्यवसाय को विशाल स्वरूप देने की दिली इच्छा ही क्यों ना हो. आइए जानते हैं कि कम पूंजी में भी छोटे से व्यवसाय को कैसे विस्तार दिया जा सकता है.
आज जितने भी टॉप व्यवसायी हैं, वे अपने व्यवसाय में ज्यादा पूंजी नहीं लगाते है. आज के दौर में एसेट लाइट मॉडेल का उपयोग बहुत किया जा रहा है. इसे फ्लाई लाइट मॉडल कहते हैं. यानी कम निवेश पूंजी पर अधिकतम रिटर्न प्राप्त करना. आज ज्यादातर उद्योगों में यही सिस्टम अपनाया जा रहा है. उदाहरण स्वरूप दुनिया की सबसे बड़ी मैसेंजिंग कंपनी व्हाट्सऐप का अपना सर्वर जीरो है, लेकिन वे आपके ही मोबाइल ऑपरेटिंग पर अपना सर्वर बना लेता है. पूरी दुनिया में उनके 200 कर्मचारी भी नहीं हैं. यही किस्सा दुनिया की सबसे बड़ी टैक्सी सर्विस ऊबर की है. ऊबर के पास एक भी टैक्सी नहीं है, ना कोई ड्राइवर है, लेकिन उनका धंधा टॉप पर चल रहा है. इसी तरह अलीबाबा, बाटा, एप्पल मोबाइल इनका अपना कुछ भी नहीं है, बस इधर का माल उधर और उधर का माल इधर कर ढेर सारा मुनाफा कमा रहे हैं. इसे कहते हैं फ्लाई लाइट मॉडल. एसेट लाइट मॉडल अपने एक्सपर्टी पर फोकस करता है तो प्रोमोटर और इन्वेस्टर रिटर्न ऑफ इन्वेस्टमेंट अपने आप बढ़ जाता है.
फ्लाइट लाइट मॉडेल के तीन फायदे-
- हाई रिटर्न ऑन एसेट्स (High Return on Assets) यह बताता है कि किसी भी कंपनी के पास जितना एसेट हैं, जैसे- प्लांट, मशीन, ऑफिस बिल्डिंग, कार आदि उसका उपयोग करके कंपनी कितना प्रॉफिट कमा सकती है. इससे उन्हें बढ़िया रिटर्न और एसेट्स मिलता है.
- कंट्रोल प्रॉफिट फ्लकचुएशंस (Controlied Profit Fluctuation): आजकल प्रॉफिट में बहुत ज्यादा फ्लक्चुएश हो जाता है. दुनिया तेजी से बदल रही है. हर चीज का विकल्प तेजी से प्राप्त हो रहा है. आज व्हाट्सऐप दुनिया का सबसे बड़ा मैसेंजिंग पॉवर माना जाता है, इसके बावजूद आज सिलीकॉन वैली में 15 टीमें सक्रिय हैं, जो व्हाट्सऐप से भी तेज विकल्प लाने के रास्ते तलाश रही हैं. इस तरह मुनाफे में आज वहुत चंचलता है.
- स्केलेबिलिटी ड्रिवेन कॉस्ट (Scalability Driven Cost): यह बताती है कि किसी भी कंपनी के पास जितना एसेट हैं, उसका इस्तेमाल करके कंपनी कितना प्रॉफिट कमा रही है. यानी एक कंपनी का मैनेजमेंट अपने एसेट या रिसोर्स का उपयोग करके प्रॉफिट कमाने में कितनी सक्षम है.
इस तरह हम यह जान सकते है कि एसेट लाइट मॉडल से केवल कंपनी का स्केलअप होगा, वो भी बिना किसी अतिरिक्त निवेश किये. इससे केवल आपका प्रॉफिट बढ़ेगा.
इस बात को इन पांच उदाहरणों से समझा जा सकता है-
फ्रेंचाइजी (Franchising): वर्तमान में फ्रेंचाइजी बहुत इजी एवं फास्ट तरीका है. आज फ्रेंचाइजर और फ्रेंचाइजी दोनों के लिए एसेट लाइट सिस्टम है. दोनों का पूंजी लोड शेयर हो जाता है और बिजनेस बढ़ जाता है. फ्रेंचाइजर को जहां नये सेटअप के लिए पूंजी नहीं लगानी पड़ती, वहीं फ्रेंचाइजी को नये सेटअप के लिए सेल्स, मार्केटिंग, प्रोप्राइटरी, टूल्स, ट्रेनिंग, लर्निंग जैसी बातों के लिए टाइम और मनी नहीं लगानी पड़ती है. मास्टर फ्रेंचाइजी का काम मेन पॉवर को ट्रेनिंग देना, उसे कारपोरेट स्ट्रेटजी देना और उसकी सेल्स, मार्केटिंग, ब्रांडिंग इत्यादि में सपोर्ट करना है. बदले में उसे लाइसेंसी फीस मिलती है और बाद में मंथली रायल्टी पेमेंट, जो उसकी प्रॉफिट का परसेंटेज होता है. फ्रेंचाइजी काम करता है और फ्रेंचाइजर प्रॉफिट का परसेंटेज कमाता है. दोनों का इन्वेस्टमेंट शेयर हो जाता है. उदाहरण के लिए पिज्जा हट, डोमिनो, सबवे, मैकडोनाल्डज इत्यादि.
आउटसोर्सिंग (Outsourcing): आउटसोर्सिंग से आप अपनी लागत को कम ऑपरेशनल एफिसियेंसी बना लेते हैं. उदाहरणस्वरूप एप्पल फोन, जिसे वह नहीं बल्कि फॉक्सकोन कंपनी बनाती है. एचएमडी ग्लोबल का नोकिया और साउमी का फोन भी फॉक्सकोन ही बनाता है. इस तरह फॉक्सकोन को जहां मोबाइल बनाने में मास्टरी करने का मौका मिलता है, वहीं मूल मोबाइल कंपनी को ब्रॉन्ड बिल्ड करने और बेचने में मास्टरी का अवसर मिल जाता है. काम और जिम्मेदारी बंटने से खर्च बचता है.
एसेट शेयरिंग मार्केट (Asset Sharing Model): एसेट की कीमत ज्यादा होने पर दो या अधिक कंपनी उसे शेयर कर लेते हैं. कई बड़ी आयल एंड नेचुरल गैस कंपनियां खर्चीली मशीन के प्रयोग को शेयर कर लेती हैं. यानी साल में 6 महीने एक कंपनी और 6 महीने दूसरी कंपनी. इससे महंगी मशीन का खर्च कम हो जाता है. ओयो ने भी यही काम किया है. पहले से बनी प्रॉपर्टी को उसने शेयर में ले लिया, उसका लाभ यह हुआ कि जिसकी प्रॉपर्टी खाली पड़ी थी, उसे भी आय होने लगी और जिसे बिजनेस बिल्ड करना था, उसे भी मुनाफा मिलने लगा. महिंद्रा लॉजिस्टिक और दूसरी बड़ी कंपनियां भी यही कर रही हैं.
पे-पर यूजः मान लीजिये आपकी कंपनी का कोई कारपोरेट ऑफिस मुंबई में है, आपके पास ढाई सौ लोगों की मैन पॉवर है, लेकिन आपको चेन्नई, गुड़गांव, चंडीगढ़, बेंगलुरु इत्यादि जगह पर ब्रांच खोलनी है तो आपके पास ऑफिस के नये पेसेस कांसेप्ट हैं. पे-पर यूज यानी आप जितने वर्क्स स्टेशन लोगे, उतने का ही पैसा दोदेना पड़ेगा. प्रिंटर्स से लेकर वॉश रूम, पैंट्री कॉमन, स्टेशनरी, इंटरनेट ये सभी कॉमन यूज के लिए रखें. इस तरह आपने ऑफिस भी ले लिया और ऑफिस सेटअप का खर्चा भी कम से कम में हो गया.
लाइसेंसिंग इन एंड लाइसेंसिंग आउट: कई कंपनियां अपनी आरएलडी कास्ट और ब्रांड डेवलपमेंट कास्ट बचाने के लिए इस फंडे का इस्तेमाल करती है. यानी अगर कंपनी आपसे किसी उत्पाद का लाइसेंस लेती है, तो यह लाइसेंसिंग इन और अगर कंपनी लाइसेंस दे रही हैं तो लाइसेंसिंग आउट कहलाता है. इस तरीके कंपनियों की कास्ट शेयरिंग हो जाती है.